हिंदू असहिष्णुता का प्रश्न
आपने पूछा ---- बाम पंथियों एवं मुसलमानों द्वारा हिन्दुओं पर बढती असहिष्णुता का आरोप कहाँ तक सही है ?
वास्तविकता यह है कि हिन्दू मौलिक रूप से कभी भी असहिष्णु नही रहा है | यदि समाज के किसी धड़े या कुनवे में असहिष्णुता परिलक्षित हो रही है तो वह तात्कालिक प्रतिक्रिया स्वरुप है | यह हिंदू संस्कृति का स्थायी भाव नहीं है | जो व्यक्ति या बर्ग विशेष असहिष्णुता को प्रदर्शित कर रहा है , वह किसी न किसी रूप में वाम पंथियों व मुसलमानों द्वारा पीड़ित व प्रताड़ित रहा हो | यदि हम प्रकारान्तर से हिंदू प्रबृत्ति एवं प्रकृति का विशलेषण करें तो पायंगे कि सर्व धर्म समभाव एवं सर्व समावेशी मूल्यों व उदात्त जन कल्याण की भावनाओं से ओत-प्रोत , यदि कोई धर्म है तो वह हिंदू धर्म ही है |
उल्लेखनीय है कि जैन धर्म व बौद्ध धर्म कभी न कभी वैदिक धर्म जिसे सनातन धर्म भी कहा जाता है के ही भाग थे | वैदिक धर्म मेंआई कतिपय कुरीतियों के कारण वे सनातन धर्म से अलग हो गए | जैन धर्म , बौद्ध धर्म तथा चार्वार्कों ने वैदिक धर्म की दिल खोल के आलोचना की | परन्तु इस आलोचना को वैदिक धर्मावलम्बियों द्वारा आत्मसात किया गया | वे प्रतिशोध की भावनाओं से ग्रस्त नहीं हुए | इसीलिए उन्होंने जैन दर्शन, बौद्ध दर्शन व चार्वाक दर्शन को अपने षठदर्शन के साथ जोड़ लिया | अपने विरोधियों व आलोचकों को अपने में समाहित करने की संस्कृति भला और कहीं देखी जा सकती है ? यही वह संस्कृति है जो अन्तर्मन से यह स्वीकारती है एवं
"निंदक नियरे राखिये आँगन कुटी छवाय; बिन साबुन पानी बिना निर्मल करे सुहाय" की कहावत को चरितार्थ करती है | यदि हिन्दुओं में असहिष्णुता होती तो क्या वे अपनी आलोचनाओं को अपने ही साहित्य का भाग बनाते ?
देखा जाय तो सामाजिक स्तरीकरण के सिद्धांत के अनुसार किसी भी धर्म में समयान्तराल में कुछ न कुछ कमियाँ अथवा बुराइयाँ आ ही जाती है | परन्तु धर्म में प्रविष्ठ इन कुरीतियों की अनर्गल व्याख्या करने के बजाय उनकी सहज स्वीकारोक्ति अधिक श्रेयस्कर है | अच्छा होता यदि मुसलमान भी इस्लाम में आयी कमियों को सहज रूप से स्वीकार करने की प्रबृत्ति विकसित करते तथा सही व गलत में विवेकपूर्ण निर्णय लेने का साहस रखते |
thank you for approaching me for correct knowledge.
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