किसान आन्दोलन
आपने पूछा बर्तमान किसान आन्दोलन को आप कैसे देखते है ?
किसी व्यक्ति विशेष का दृष्टिकोण महत्वपूर्ण नहीं होता हें | महत्व इस बात का हें कि इतिहास इस आन्दोलन को कैसे देखेगा ? किसानों कि अपनी मागें जायज ठहराई जा सकती हें और स्वाभाविक भी हें | परन्तु इतिहास यदि सही हाथो से लिखा गया तो इस आन्दोलन को द्रोपदी के चीर हरण या सीता हरण के रूप में ब्य्ख्यायित करेगा || क्योकि 26 जनवरी २०२1 को किसानों द्वारा लाल कीले पर किया गया ताण्डव नृत्य नितान्त अशोभनीय व रुदन के योग्य था | लाल कीले की प्राचीर पर लहराने वाला तिरंगा जो भारत के गौरव का प्रतीक था पद दलित हुआ ,अपमानित हुआ |यह कार्य उन पराई विद्या के बैलो द्वारा किया गया जो बीरों की खाल ओढ़े हुए थे ,जो जय जवान जय किसान का नारा देते नहीं थक रहे थे |सच पूछो तो उस दिन हास्य में हा हा कार मचा हुआ था | देश का जवान जो मात्रभूमि एवं तिरंगे के लिए जन देता है | भूख, प्यास ,धन वैभव घर परिवार सब कुछ छोड़ कर भी देश व तिरंगे की आबरू बचाता है उसके साथ वे लोग अपनी तुलना कर रहे थे जो एक ओर मैदान में अपने भोग बिलास .धन बैभव का प्रदर्शन कर रहे थे और दूसरी तरफ चंद पैसों के लिए देश कि अस्मिता को तार -तार करने पर उतारू थे | तिरंगे का हरण सीता हरण से कम दुखदायी नहीं था |
यदि यह इतिहास बामपंथियो की कलम से लिखा जाताहै तो निश्चित ही वे इसे अतीत के गौरवशाली किसान आंदोलनों से जोड़ेगे और सारे ही कुकृत्य छिपा दिए जायेंगे |सच तो यह हें कि इस आन्दोलन का नेतृत्व था ही बामपंथियो के हाथो में | इस आन्दोलन में वह सारा बुर्जुवा बर्ग मौजूद था जिनमे बड़े बड़े भूमिधर ,जमींदार सामंत व कमीसन एजेंट थे | बामपंथ का लाल झंडा इसी बर्ग के हाथों में था | जब कि खेतिहर मजदूर ,बंटाईदार ,बेगार मजदूर जिनको ट्रेक्टर वाला किसान अपनी ट्रेक्टर ट्रोली में उठा लाया था , आन्दोलन से अन मने भाव से जुडा था |इस आन्दोलन में उत्तराखंड कि तराई एरिया से आने वाले वे किसान भी थे जो सन १९ 47 में भारत बिभाजन के बाद पाकिस्तान से भारत आये थे और उन्हें विस्थापितों के तौर पर कुमाऊँ की तराई में बसाया गया था | जिन्होंने तराई की मूल जन जातियों थारू ,एवं बोक्साओं की जमीन ओंने -पोने दाम पर हथिया कर उनको बंधुवा मजदूरी करने के लिए बाध्य कर दिया हें |उन्हें डरा धमका कर या तो भगा दिया गया या 100 रु के नॉन जुडिशल स्टाम्प पर दस्तखत करवा कर उनकी पैत्रिक सम्पति पर कब्ज़ा कर लिया गया | जिस ऑस्ट्रेलिया रिटर्न किसान पुत्र कि मृत्यु अपने ही ट्रेक्टर हादसे में हुयी उसके प्रति राजनीतिक दलों ने सहानुभूति का अम्बार लगा दिया परन्तु उन जन जातियों के बारे में किसी ने नहीं पूछा जिनकी लाशें उन्ही की जमीनों में दफ्ना दी गयी हें |किसान आन्दोलन का हस्र जो भी हो पर जो दाग इस आन्दोलन पर लग चुका है वह अमिट है |
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